हर देश की अपनी राष्ट्रभाषा होती है।
सारा सरकारी तथा अर्ध - सरकारी काम
उसी भाषा में किया जाता है।
वही शिक्षा का माध्यम भी है। कोई भी देश
अपनी राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही विकास पथ
पर अग्रसर होता है। संसार के सभी देशों ने
अपने देश की भाषा के माध्यम से
ही अनेकों आविष्कार किए हैं। लेकिन
विडबंना देखिए की हिन्दी आज़ादी के 63 साल
गुजर जाने के पश्चात भी अपना सम्मानजनक
स्थान नहीं पा सकी है। आज़ादी के समय
हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रुप में स्थापित करने के
प्रयास का भरसक विरोध किया गया और तर्क
दिया गया कि इससे प्रांतीय भाषाएँ पिछड़
जाएँगी। अनुच्छेद 343 में लिखा गया है - संघ
की राजभाषा हिन्दी होगी और
लिपि देवनागरी होगी परन्तु बाद में इसके साथ
जोड़ दिया गया कि संविधान के लागू होने के
समय से15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन
प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग
होता रहेगा। इस तरह हिंदी को 15 वर्ष
का वनवास मिल गया। इस पर भी पंडित
जवाहरलाल नेहरु ने 1963 में संशोधन कर
दिया कि जब तक एक भी राज्य हिंदी का विरोध
करेगा , हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं होगी। हिंदी के
सच्चे सेवकों ने इसका विरोध भी किया। कुछ
समय बाद प्रांतीय भाषाओं में विवाद
खड़ा हो गया। उत्तर और दक्षिण में
हिंदी का विरोध हुआ और इन दो पाटों में
हिंदी पिसने लगी। आज भी हिंदी वनवासिनी है।
सारा सरकारी तथा अर्ध - सरकारी काम
उसी भाषा में किया जाता है।
वही शिक्षा का माध्यम भी है। कोई भी देश
अपनी राष्ट्रभाषा के माध्यम से ही विकास पथ
पर अग्रसर होता है। संसार के सभी देशों ने
अपने देश की भाषा के माध्यम से
ही अनेकों आविष्कार किए हैं। लेकिन
विडबंना देखिए की हिन्दी आज़ादी के 63 साल
गुजर जाने के पश्चात भी अपना सम्मानजनक
स्थान नहीं पा सकी है। आज़ादी के समय
हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रुप में स्थापित करने के
प्रयास का भरसक विरोध किया गया और तर्क
दिया गया कि इससे प्रांतीय भाषाएँ पिछड़
जाएँगी। अनुच्छेद 343 में लिखा गया है - संघ
की राजभाषा हिन्दी होगी और
लिपि देवनागरी होगी परन्तु बाद में इसके साथ
जोड़ दिया गया कि संविधान के लागू होने के
समय से15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन
प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग
होता रहेगा। इस तरह हिंदी को 15 वर्ष
का वनवास मिल गया। इस पर भी पंडित
जवाहरलाल नेहरु ने 1963 में संशोधन कर
दिया कि जब तक एक भी राज्य हिंदी का विरोध
करेगा , हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं होगी। हिंदी के
सच्चे सेवकों ने इसका विरोध भी किया। कुछ
समय बाद प्रांतीय भाषाओं में विवाद
खड़ा हो गया। उत्तर और दक्षिण में
हिंदी का विरोध हुआ और इन दो पाटों में
हिंदी पिसने लगी। आज भी हिंदी वनवासिनी है।
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